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जीवन परिचय: रचनाकार जयशंकर पांडेय जी का जन्म १८ जुलाई १९९६ को हुआ इनके पिता का नाम श्री अशोक कुमार पाण्डेय है औरमाँ का नाम श्रीमती गीता पाण्डेय है| जयशंकर जी उत्तरप्रदेश के बलरामपुर के रहने वाले हैं| इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – मुक्ततरंगिनी (साझा काव्य संग्रह), बज्म-ए-हिंद(साझा काव्य संग्रह), भावांजलि (साझा काव्य संग्रह), भावांजलि-३( साझा काव्य संग्रह), बज्म-ए-हिंद” (साझा काव्य संग्रह) विश्व के सबसे बड़े साझा काव्य संग्रह. के रूप में गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड में दर्ज है| देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं|
जयशंकर जी के अनुसार – बचपन से ही परिवार में धार्मिक व सांस्कृतिक परिवेश होने के कारण तथा मेरे दादाजी (स्व० रामाचार्य पाण्डेय) का मेरे शिक्षा व संस्कारों पर विशेष ध्यान के कारण धीरे- धीरे मेरा रुझान साहित्य की ओर बढ़ा। मेरे दादाश्री व पिताश्री बचपन से ही “श्रीरामचरितमानस”, “राधेश्याम रामायण”, पढ़ाते तथा फिर लयबद्ध तरीके से सुनते तथा घर में पूजास्थल पर विभिन्न स्तुतियों का गायन करने को प्रेरित करते थे, जैसे- हे प्रभु आनंददाता……., माँ शारदा कहाँ तू वीणा बजा रही है, हनुमान व शिव लीसा आदि तथा घर पर कई पत्रिकायें आने व उनसे अनवरत जुड़े रहने की वजह से साहित्य के प्रति मेरी रुचि अत्यधिक प्रगाढ़ होती गयी, साथ ही साथ स्कूलों में आयोजित विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए हमें प्रेरित करते रहते थे तथा राष्ट्रीय पर्वों पर देश भक्ति गीत के प्रस्तुति के लिए देश भक्ति गीतों की पुस्तकें मुहैय्या करवाते व उनमें जो गीत सबसे अच्छा लगे उसे प्रस्तुति से पहले हमसे कई बार सुनते। धीरे-धीरे मुझे भी कवितायें पढ़ना व सुनाना बहुत अच्छा लगने लगा। यही सिलसिला चलता रहा तथा मैं लगभग कक्षा-7 या 8 में रहा होऊँगा तब मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं जो अभी भी हमें याद है-
लहर-लहर लहराये तिरंगा
फहर-फहर फहराये तिरंगा
हम बच्चों को बुलाये तिरंगा
शान अपनी दिखाये तिरंगा
मेरे देश का तिरंगा, मेरे देश का तिरंगा
इस तरह माँ वीणापाणि, मेरे दादाजी, माताजी,पिताजी, गुरुजन व समस्त छोटे-बड़ों के स्नेह व शुभाशीष से मेरी लेखनी भी साहित्य सृजन के लिए पिछले एक वर्ष(२०१८) से प्रयासरत होने लगी तथा अब तक प्रयास जारी है।
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“ऐसी होती है माँ”
माँ की ममता कर सके बयाँ,
शब्दों में इतनी शक्ति कहाँ?
फिर भी उस माँ को लिखता हूँ,
जिसने दिखलाया मुझे जहाँ।
नि:स्वार्थ भाव की मूरत है,
धरणी की देवी माँ ही है।
संतति में जिसके प्राण बसें,
वह सृष्टि सृजक इक माँ ही है।
इस सृजनहार की ममता में,
संतान सुविकसित होती है।
भारी से भारी संकट को
माँ की ममता धुल देती है।
माता निज साँचे में गढ़कर,
संतति का रूप बनाती है।
फिर सुंदर सहज ज्ञान देकर,
दुनियाँ की रीति सिखाती है।
माँ की ममता निज संतति के,
मन भावों को पढ़ लेती है।
बिन कहे समझ सब जाती है,
माँ बिन बोले सुन लेती है।
माँ त्याग,समर्पण, संयम का,
हरपल शुभ शिक्षा देती है।
लेकर ढ़ेरों जिम्मेदारी,
माँ घर की नैय्या खेती है।
माँ के हाथों का खाद्य पेय,
सुंदरतम, मधुमय होता है।
अरु माता का आशीष सदा,
तन-मन पावन कर देता है।
भूखी रहती है स्वयं किंतु,
बच्चों का भूख मिटाती है।
यदि निलय अभावों में है तो,
माँ भूखी ही सो जाती है।
जब रहें दूर माँ से बच्चे,
माता का मन घबराता है।
माँ का उपवास,ध्यान,पूजन,
संकट से सदा बचाता है।
बेजोड़ सृजन हो माता का,
इस कारण खुद को दहती है।
बच्चों को देकर सुख-सुविधा,
माँ खुद अभाव में रहती है।
बच्चों का आने वाला कल,
हो सुंदर, सुखद और निर्मल।
बस इन स्वप्नों को देख-देख,
माँ निज मन को भर लेती है।
हम मूर्ति पूजते निशदिन पर,
निज माँ की पूजा भूल गए।
है सच में देवि स्वरूपा जो,
उस माँ से बच्चे दूर हुए।
माँ को वृद्धाश्रम ले जाकर,
माँ की ममता का मोल दिया।
जिस माँ के जीवन बच्चे हैं,
उस माँ का जीवन छीन लिया।
माँ फिर भी संतानों की ही,
हरपल में चिंता करती है।
माँ व्यथित हृदय के घावों को,
घर की यादों से भरती है।
माँ जगती की आधारशिला,
माँ ही पावन गंगाजल है।
रचनाकारों की गुरू श्रेष्ठ,
हर विपदा का माँ ही हल है।
माँ हर रोगों की औषधि है,
माँ के चरणों में तीरथ है।
माँ सकल सृष्टि की संचालक,
माँ ही ईश्वर की मूरत है।
ऐसी मूरत को क्या गाऊँ?
क्या लिखूँ ,पढ़ूँ ?क्या समझाऊँ?
कण-कण में माँ ही दिखती है,
माँ के चरणों में बलि जाऊँ। —— ११ अक्टूबर २०१९
“मातृभाषा हिंदी को समर्पित”
हिंदी भाषा यह कहे, सुन मेरी संतान।
मुझसे ही मुँह फेरकर, क्यों बनता अंजान।।
होकर बहुभाषी यहाँ, खूब जुटाओ ज्ञान।
यदि हिंदी से दूर हो, तो सब मिथ्या जान।।
भारत को है ईश से, मिला एक सम्मान।
अनुपम वाणी है यही, हिंदी है वरदान।।
करदे भावों को सरल, बने मनोहर तान।
हिंदी भाषा है वही, है वह मातृ समान।।
भाषा हिंदी शान है, है भारत की जान।
कीर्तिपताका है यही, है अनुपम वरदान।।
भाषा शैली हो विमल, और शुद्ध सुविचार।
लेखन,पाठन हो सरल, हिंदी हो करतार।।
सत्य,सरल,मनहर कथन,का हरपल हो साथ।
ऐसी भाषा एक है, हिंदी अपनी मात।।
देवनागरी लिपि कहे, हूँ मैं देव स्वरूप।
अभिव्यक्ति सुंदर बने,अपनाओ यह रूप।।
जितना कर सकते वरण, करलो इसका ज्ञान।
हिंदी अपनी मातु है, दो माँ को सम्मान।।
राष्ट्र प्रेम को बल मिले, हो सबका सम्मान।
हिंदी ही बोलें सभी, हो भारत कल्याण।।
हिंद हमारा है भवन, हिंद हमारा प्राण।
हिंदी है संवेदना, हिंदी हिंदुस्तान।।
विश्व गुरू थे,फिर बनें, चमकें भानु समान।
हिंदी का करके वरण, भारत बने महान।।
हर भाषा का सार है, है सबका प्रतिमान।
भारत का गौरव यही, है भारत की शान।।
माना भाषा है बहुत, पढ़कर हो बहु ज्ञान।
मानव निज भाषा बिना, है खुद से अनजान।।
भाषा हिंदी शान है, है भारत की जान।
कीर्तिपताका है यही, है अनुपम वरदान।।
है अनुपम वरदान, मातृभाषा है हिंदी।
है अतुलित सम्मान, भारती की है बिंदी।।
कह शंकर कविराय, यही है सबसे आसा।
करदो खूब प्रसार, पढ़ें सब हिंदी भाषा।।1
भाषा शैली हो विमल, और शुद्ध सुविचार।
लेखन,पाठन हो सरल, हिंदी हो करतार।।
हिंदी हो करतार, बने यह राष्ट्र पताका।
हो सबकी यह बोल, बने भारत की साका।।
कह शंकर कविराय, यही मेरी अभिलाषा।
हिंदी अपनी शान, बने यह वैश्विक भाषा।।2
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“पथिक तम से न घबराओ”
कहो तुम सत्य हरपल ही नहीं तुम भय तनिक लाओ
सदय दिल हो सदा ही और मधुरिम गीत तुम गाओ
निरंतर लक्ष्य को भेदो बढ़ो आगे निरंतर ही
महज कुछ ठोकरों से टूटकर मंजिल न बिसराओ
बनो तुम दीप खुद के हे पथिक तम से न घबराओ
जहाँ के व्यंग्य के खातिर न मन में खेद तुम लाओ
हजारों कोशिशें होवें विफल फिर भी रहो तत्पर
सभी दुःख संशयों को छोड़कर जयगान तुम गाओ
सदा सोचो सहज, सुंदर विचारों के लिए तुम हो
सुनिश्चित लक्ष्य जो कुछ है किनारों के लिए तुम हो
नहीं बाधा कभी झकझोर पाये तुम अडिग रहना
दिवाकर हो धरा के तुम उजालों के लिए तुम हो
पगों से कौन तय करता, यहाँ पर दु:ख भरे पथ को
सदा आराध्य तुम मानो, जहाँ में कर्म के रथ को
अगर मन में बने संशय, स्वयं इतिहास पढ़ लेना
विजय होता उसी का जो, चुने संघर्ष के पथ को ————–१९ सितंबर, २०१९ |
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