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“कहानी-अफसोस”
आज क्लीनिक जाते वक्त रास्ते में एक भिखारिन बुढ़िया को देखा जो शायद अब इस दुनिया में नहीं थी। उसके आसपास कुछ नेता टाइप के लोग खड़े थे जो बातें कर रहे थे कि कल रात बारिश में भीग कर इसकी मृत्यु हो गयी।जिस दुकान के बाहर वह सोती थी उसके मालिक ने रात में इसको दुकान से भगा दिया था।बेचारी रात भर भीगती रही।
इसके आगे के शब्द मुझे सुनाई नहीं दिये क्यूं कि मैं तेज तेज कदमों से चल कर रेलवे स्टेशन की ओर जा रही थी।ट्रेन समय पर आ गई और मैं उसमें चढ़ गई ।चारों तरफ नजर दौड़ा कर देखा तो कुछ सीटें खाली थी ।आज ट्रेन में ज्यादा भीड़ नहीं थी आराम से बैठने की जगह मिल गई। ट्रेन थोड़ी ही दूर चली होगी कि आज अनजाने में सालों पहले घटी एक घटना की ओर मन खिंचने लगा।
मुझे आज भी याद है वह दिन, जब मैंने नई नई प्रैक्टिस शुरू की थी। नया क्लीनिक नया उत्साह सब कुछ नया नया। लोग दवाइयां लेने आते उनको देखते समय मुझे ऐसा लगता मानो उनकी बीमारियां ठीक करके मैं उन पर एहसान कर रही हूं ।वक्त बीतता गया मेरी दवाइयों से लोग जल्दी ठीक होने लगे।ये देख कर मेरा गुरुर बढ़ने लगा । अब मैं मरीजों में पसंद ना पसंद भी करती थी।गरीब और गंदे मरीजों को मैं टाल देती थी।
कंपाउंडर से बोलकर उसको मना करवा देती थी कि कह दो- डॉक्टर अभी नहीं आये हैं। मुझे कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि मरीजों को ठीक करना ना करना वाले के हाथ में है, मैं तो कठपुतली हूं ,उसके हाथों की।
धीरे धीरे मेरे व्यवहार से दुखी होकर गरीब मरीजों ने मेरे पास आना कम कर दिया। तब भी मुझे अपनी गलती का एहसास नहीं हुआ, मैं सोचने लगी, ये मरीज मेरे इलाज लायक नहीं है। जब जरूरत होगी तब खुद ही आएंगे और मैं तब इनसे दुगनी फीस वसूल करुंगी।
एक दिन एक बूढ़ी माई दवाई लेने मेरे पास आई। उसको देख कर मैंने अपने कंपाउंडर से कहा जाओ -इससे जाकर कह दो कि डॉक्टर अभी नहीं आई है। कंपाउंडर ने जाकर कहा तो वह बोली- तुम झूठ बोल रहे हो, मैंने अपनी आंखों से डॉक्टर को आते हुए देखा है। जाओ! और उनसे कहो मेरा इलाज कर दें आसपास और कोई डॉक्टर नहीं है और दूर जाने की मुझमें हिम्मत नहीं है ।कंपाउंडर ने अंदर आकर मुझे बताया, इससे पहले मैं उसको कुछ बोलती वो बूढी माई अंदर आकर मुझसे बोली- इतना गुरुर अच्छा नहीं है बेटी, भगवान ने तुमको हुनर दिया है उससे तुम दूसरों की सेवा करो, ना ही उनका अपमान। अगर तुम ऐसे ही अपने मरीजों का अपमान करती रही, तो वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें अपनी क्लीनिक में ताला लगाना पड़ेगा।
उसकी बात सुनकर मैंने उसे लगभग डाँटते हुए बोला- मुझे तुम्हारी सलाह की कोई आवश्यकता नहीं है।निकल जाओ मेरी क्लीनिक से, ना जाने कंहां कहां से चले आते हैं ये लोग।,, पैसा-वैसा कुछ होता नहीं पास में और चले आते हैं मेरे जैसे डॉक्टर से दवा लेने।
उसने धीरे से बोला-बेटी मैं जा रही हूं । अब शायद ही कोई तुम्हारी क्लीनिक में आएगा।
तुमने एक बूढ़ी लाचार की मदद करने से मना किया है । भगवान तुमको कभी माफ नहीं करेगा।और रही बात पैसों की तो मेरे पास इलाज के लिए पैसे हैं। ऐसा कह कर उसने अपने ब्लाउज में से सौ-सौ,पांच पांच सौ के तीन चार नोट निकाल कर दिखाये, पर अब मैं तुमसे दवा नहीं लूंगी। डॉक्टर तो भगवान का रुप होते हैं पर तुम तो शैतान हो।क्या पता पैसों के लालच में कैसा इलाज करो।तुमसे दवा लेने से तो बेहतर है मर जाना।ऐसा बोलकर वह तेजी से मेरी क्लीनिक के बाहर चली गई ।
रात को जब मैं क्लीनिक बंद करके घर आ रही थी ।वह बुढ़िया बाहर ही बैठी थी।उसे अनदेखा करते हुए मैं जल्दी-जल्दी घर की ओर चल दी। देर बहुत हो चुकी थी इसलिए टैक्सी ले के घर आ गई
सुबह पुलिस का फोन आया -डॉक्टर साहब जल्दी यहां आ जाइये।आपकी क्लीनिक के बाहर एक औरत की मृत्यु हो गई है। पोस्टमार्टम के लिए ले जाने से पहले आपका यहां होना बहुत जरूरी है। जल्दी-जल्दी मैं अपने क्लीनिक पहुंची ,वहां बहुत भीड़ लगी हुई थी ।सब को हटा कर मैं आगे पहुंची तो देखा वो वैसी ही बैठी थी जैसा मैंने रात को निकलते वक्त देखा था।पुलिस ने जरूरी की और पोस्टमार्टम के लिए ले गए ।उसके जाने के पश्चात कुछ लोग मेरे पास आए (जो शायद उसको जानते थे) और बोले -डॉक्टर वह बूढ़ी माई आपकी बहुत तारीफ करती थी।हमेशा कहती थी कि आप में बहुत हुनर है यदि आप एक बार उसको देख लोगे तो वह ठीक हो जाएगी। इसके लिए वह मेहनत मजदूरी करके आपकी फीस के पैसों का इंतजाम कर रही थी ।यह सब सुनकर मुझेअपने आप पर बहुत शर्म आई।मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी।
तब से मैंने संकल्प लिया।
कि मैं अपनी प्रैक्टिस सिर्फ गरीबों और लाचार लोगों के लिए ही करुंगी ।इनकी मदद करके शायद ऐसा करके मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर सकूं ।अपनी गलती का एहसास मुझे बहुत देर से हुआ तब तक मेरे हाथों किसी की जान जा चुकी थी। —————————-०३ अगस्त २०१९
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“उम्मीद ( कविता)”
ये उम्मीद ही तो है
जो मरने नहीं देती
वरना जीना ही कौन चाहता है
यहाँ ऐसे निर्मम
निर्दयी संसार में
उम्मीदों का दामन थाम चलते हैं
रिश्तों में उम्मीद
नौकरी की उम्मीद
उम्मीद के सहारे सभी जी रहे हैं
खुशी की उम्मीद
चाहत की उम्मीद
गम से उबरने की उम्मीद भी है
अगर ये उम्मीद
ना होती तो कभी
ना सहते रहते यूँ लाखों सितम
इस उम्मीद ने ही
जीना सिखाया नहीं
तो कब के मर ही गये होते ह —————————-०३ अगस्त २०१९
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लघुकथा-मतलबी
अनीता तुम कितनी मतलबी हो -राजेश ने चिल्लाते हुये कहा.क्यों, क्या हुआ?ऐसे क्यों बोल रहे हो?अनीता ने पूछा
आहा! जैसे तुम कुछ जानती ही नहीं.? क्यों करती हो ये सब? मैंने तुमको मना किया था कि मेरे भाई-बहिनों के सामने यह नहीं बोलना कि यह घर तुम्हारा है .पर नहीं तुम्हें तो बहुत शौक है ना, अपनी मालकियत दिखाने का.सबके सामने बोल दिया ये घर तुम्हारा है.सबको दुखी करके मिल गयी तुम्हारे कलेजे को ठंडक?अब वो लोग उस हक से इस घर में नहीं रह पायेंगे जैसे गाँव वाले घर में रहते थे.अनीता चुपचाप सोच रही थी कि सिर्फ एक बार मजाक मजाक में बोल दिया तो ये सहन नहीं कर पाये.गाँव में तो आये दिन उसे-ये घर तेरा नहीं है, तेरे बाप का है क्या ये घर?जो बड़ी शान से अंदर से बाहर तक घूमती रहती है.और भी ना जाने क्या क्या? बोला जाता था.
तब तो किसी को नहीं समझा कि मुझे कैसा लगता होगा.
एक बार ही अपने घर वालों से कह देते- मैंने शादी की है इससे इससे,इसलिये अब ये घर इसका भी है.तुम लोग ऐसे क्यूँ बोलते हो?नहीं ,तब तो उल्टा मुझे ही समझाते थे कि एक दिन अपना भी घर होगा तब रहना तुम उसमें शान से.कोई तुम्हें नहीं कहेगा कि ये घर तुम्हारा नहीं है.
अब..अब तो खुद ही कह रहे हैं कि मै नहीं कह सकती कि ये घर मेरा नहीं हैतो मतलबी मैं कैसे?
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कविता-आशा का दीप
हमने आशा का एक दीप जला रखा है,
उसके साये में उजालों को छुपा रखा है,
अंधेरों से कह दो ना गुजरें अब इधर से-
हमने तो उजालों पर पहरा बिठा रखा है |
उम्मीद की एक किरण अंधेरे पर भारी है,
आज आगे बढ करआसमां छूने की तैयारी है,
जब तक रहेगा मन नाउम्मीदी की डोर थाम-
तब तक निराशा हमारी आशाओं पर भारी है |
होता है जब संचार दिल में उत्साह का ,
तब होता है आगमन यहाँ बहार का ,
उमंगों के रथ पर आरुढ होकर चली है-
तमन्ना ओढ कर देखो आंचल बयार का || ————०१ सितंबर २०१९